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११४ अष्टावक्रगीता।

हे शिष्य ! इस संसारके विषं आत्मतत्वज्ञानी कदापि खेदको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि तिस इकलेसेही यह ब्रह्माण्डमंडल पूर्ण है, सो दूसरेके न होनेसे खेद किस प्रकार हो सकता है, सोई श्रुतिमेंभी कहा है “द्वितीया? भयं भवति ॥२॥

नजातु विषयाः केपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी ।

सल्लकीपल्लवप्रीतभिवेभं निम्बपल्लवाः ॥ ३॥

अन्वयः-सल्लकीपल्लवप्रीतम् इभं निम्बपलवाः इव अमी के अपि विषयाः स्वारामं जातु न हर्षयन्ति ॥ ३ ॥

जो निरंतर आत्माके विषे रमता है, वह आत्माराम कहाता है, तिस आत्माराम पुरुषको जगत्के कोई विषय क्या प्रसन्न कर सकते हैं, जिस प्रकार एक महाम- दोन्मत्त हस्ती वनमें हजार हस्तियोंके झुंडमें विहार करता है और परम मधुरस्वादवाली सल्लकीनामक लताके कोमल पत्तोंका प्रेमपूर्वक भक्षण करता है, और कडुवे नीमके पत्तोंसे प्रसन्न नहीं होता है, तिसी प्रकार ज्ञानीभी परम मधुर आत्माका स्वाद लेता है और विष- योंके सुखोंको परम कडुआ जानकर त्याग देता है अर्थात् उनकी ओर दृष्टिभी नहीं देता है ॥३॥