पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१३०

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

११८ अष्टावक्रगीता।

अन्वयः-क्षीणसंसारसागरे ( पुरुषे ) दृष्टिः शून्या, चेष्टा वृथा, इन्द्रियाणि च विकलानि, स्पृहा न वा विरक्तिः न ॥९॥

जिस ज्ञानीका संसारसागर क्षीण हो जाता है उसको विषयभोगकी इच्छा नहीं होती है और विषयोंसे विर- क्तिभी नहीं होती है, क्योंकि ज्ञानीकी दृष्टि कहिये मनका व्यापार शून्य कहिये संकल्पविकल्परहित होता है और चेष्टा कहिये शरीरका व्यापार वृथा कहिये फलकी इच्छासे रहित होता है तथा नेत्र आदि इंद्रिये विकल कहिये समीपमें आये हुएभी विषयोंको यथार्थ रूपसे न जाननेवाली होती हैं सोई भगवद्गीताके विषं कहाभी है कि “ यस्मिन् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः " ॥ ॥९॥

न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति ।

अहो परदशा कापि वर्त्तते मुक्तचेतसः ॥ १०॥

अन्वयः-न जागर्ति न निद्राति न उन्मीलति न मीलति, अहो मुक्तचेतसः का अपि परदशा वर्तते ॥ १० ॥

न जागता है, न शयन करता है, न नेत्रोंके पलकोंको खोलता है, न मीचता है अर्थात् संपूर्ण विषयोंको ब्रह्म- रूप देखता है, इस कारण आश्चर्य है कि, मुक्त है चित्त जिसका ऐसे ज्ञानीकी कोई परम उत्कृष्ट दशा है॥१०॥