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१२६ अष्टावक्रगीता।

कर्म उन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले जो दुःख वही हुआ सूर्यकी किरणोंका अत्यंत तीक्ष्ण ताप तिससे दग्ध हुआ है अंतःकरण जिसका ऐसे पुरुषको संकल्प विकल्पकी शांतिरूप अमृतधाराकी वृष्टिके विना सुख कहांसे हो सकता है ? ॥३॥

भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः ।

नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥४॥

अन्वयः-अयम् भवः भावनामात्रः परमार्थतः किञ्चित् न ( अस्ति ); भावाभावविभाविनाम् स्वभावानाम् अभावः न अस्ति ॥ ४॥

संसाररूपी विषको दूर करनेवाला होनेके कारण संकल्पविकल्पके शान्तिरूपको अमृतरूप करके वर्णन करते हैं कि यह संसार संकल्पमात्र है, वास्तवदृष्टिसे एक आत्माके सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, यहां वादी शंका करता है कि भावरूप जो दृश्यमान जगत् है सो नष्ट होनेके अनंतर अभावरूप शून्य हो जाता है, इस प्रकार तो शून्यवादीका मत सिद्ध होता है ? इसके उत्तरमें श्रीगुरु अष्टावक्रजी कहते हैं, कि संकल्पमात्र जगत्के नाश होनके अनंतर सत्यस्वभाव आत्मा अखंडरूपसे विरा- जमान रहता है, इस कारण संसारका नाश होनेके अनं-