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भाषाटीकासहिता। १२७

तर शून्य नहीं रहता है, किंतु उस समय निर्विकल्प केवलानंदरूप मुक्त आत्मा रहता है ॥४॥

न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् ।

निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥५॥

अन्ययः-निर्विकल्पम् निरायासम् निर्विकारम् निरञ्जनम् आत्मनः पदम् न दूरम् न च संकोचात् (किन्तु ) लब्धम् एव (अस्ति) ॥५॥

वादी प्रश्न करता है कि, संकल्पविकल्पकी निवृत्ति होतेही आत्माको अमृतत्वकी प्राप्ति किस प्रकार हो जाती है ? तहां कहते हैं कि आत्मस्वरूप दूर नहीं है किंतु सदा प्राप्त है; और परिपूर्ण है सदा संकल्पविकल्परहित है, निरायास कहिये श्रमके विनाही प्राप्त है, विकार जो जन्म और मृत्यु तिनसे रहित है और निरंजन कहिये माया (अविद्या) रूप उपाधिरहित है, जिस प्रकार कंठमें धारण की हुई मणि भूलसे दूसरे स्थानमें ढूंढनेसे नहीं मिलती है और विस्मृतिके दूर होतेही कंठमें प्रतीत हो जाती है, तिसी प्रकार अज्ञानसे आत्मा दूर प्रतीत होता है परंतु ज्ञान होनेपर प्राप्तही है ॥५॥

व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।

वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥६॥