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१३० अष्टावक्रगीता।

आत्मज्ञानसे संपूर्ण कल्पना निवृत्त हो जाती है यह दिखाते हैं। जिस पुरुषको संपूर्ण जगत् ब्रह्मरूप भासता है वह पुरुष मुनिव्रतरूपी योगदशाको प्राप्त होता है, क्योंकि उस पुरुषका मन वृत्तिरहित होकर ब्रह्मके विर्षे एकाकार हो जाता है तदनंतर उस पुरुषको अपना तथा परका ज्ञान नहीं रहता है, अर्थात् मैं ध्यान करता हूं और दूसरा पुरुष अन्य कार्य करता है, यह अज्ञान दूर हो जाता है, तात्पर्य यह है कि, उस पुरुषकी कल्पनामात्र नष्ट हो जाती है ॥९॥

न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढता।

न सुखं न च वा दुःखमुपशान्तस्य योगिनः॥१०॥

अन्वयः-उपशान्तस्य योगिनः विक्षेपः न, ऐकाग्र्यम् च न, अतिबोधः न, मूहत। न, सुरक्म् न वा, दुःखम् च न (भवति)॥१०॥

अब संकल्पविकल्परहित पुरुषका स्वरूप दिखाते हैं, जो पुरुष संकल्पविकल्परहित होकर शांतिको प्राप्त होता है, उस शांतस्वभाव योगीके मनको किसी बातका विक्षेप नहीं होता है, एकाग्रता नहीं होती है, अत्यंत ज्ञान अथवा मूढता नहीं होती है, सुख नहीं होता है, और दुःखभी नहीं होता है, क्योंकि वह केवल ब्रह्मानंद- स्वरूप होता है।॥१०॥