१३६ अष्टावक्रगीता।
धीर पुरुषको प्रवृत्तिके विर्षे अथवा निवृत्तिके विषे दुरा- ग्रह नहीं होता है ॥२०॥
निर्वासनो निरालम्बःस्वच्छन्दोमुक्तवन्धनः । क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥
अन्वयः-निर्वासनः निरालम्बः स्वच्छंदः मुक्तबंधनः ( ज्ञानी) संस्कारवातेन क्षिप्तः (सन् ) शुष्कपर्णवत् चेष्टते ॥ २१ ॥
यहां वादी शंका करता है कि, तुम तो ज्ञानीको वास- नारहित कह रहे हो फिर वह प्रवृत्त अथवा निवृत्त कर्म किस प्रकारसे करता है ? तहां कहते हैं कि, ज्ञानी वास- नारहित है, ज्ञानीको किसीका आधार नहीं लेना पडता ह, इस कारणही स्वाधीन होता है, तथा ज्ञानीको राग द्वेष नहीं है परंतु प्रारब्धके अनुसार प्राप्त होता है, उसको करता है. जिस प्रकार पृथ्वीके ऊपर पडे हुए सूखे पत्तोंमें कहां जानेकी अथवा स्थित होनेकी वासना (सामर्थ्य) नहीं होती है परंतु जिस दिशाका वायु आता है उसी दिशाको पत्तेउडने लगते हैं, इसी प्रकार ज्ञानी प्रारब्धके अनुसार भोगचेष्टा करता है ॥२१॥
असंसारस्य तु क्वापि न हर्षों न विषादता। स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते॥२२॥