१३८ अष्टावक्रगीता।
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥२४॥
अन्वयः-प्रकृत्या शून्यचित्तस्य प्राकृतस्य इव यदृच्छया कुर्वतः अस्य मानः न (वा ) अवमानता न ॥ २४ ॥
स्वभावसेही जिसका चित्त संकल्पविकल्परूप विकारसे रहित है और जो प्रारब्धानुसार प्रवृत्त निवृत्त कर्मोको अज्ञानीकी समान करता है, ऐसे धीर कहिये ज्ञानीको मान और अपमानका अनुसंधान नहीं होता है ॥२४॥
कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा ।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न ॥२५॥
अन्वयः-इदम् कर्म देहेन कृतम् शुद्धरूपिणा मया न ( कृतम्) यः इति चिन्तानुरोधी ( सः) कुर्वन् अपि न करोति ॥ २५॥
संपूर्ण कर्म किया देह करता है मैं नहीं करता हूं क्योंकि मैं तो शुद्धरूप साक्षी हूं. इस प्रकार जो विचारता है, वह पुरुष कर्म करता हुआभी बंधनको नहीं प्राप्त होता है क्योंकि उसको कर्म करनेका अभिमान नहीं होता है ॥२५॥