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भाषाटीकासहिता। १३९

अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।

जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरनपिशोभते॥२६॥

अन्वयः-जीवन्मुक्तः अतद्वादी इव कुरुते, (तथा)अपि बालिश: न भवेत् ( अतः एव ) संसरन् अपि सुखी श्रीमान् शोभते ॥२६॥

किये हुए कार्यको “ मैं करता हूं " ऐसे नहीं कहता हुआ जीवन्मुक्त पुरुष कार्यको करता हुआभी मूर्ख नहीं होता है, क्योंकि अंतःकरणके विषं ज्ञानवान होता है, इस कारणही संसारके व्यवहारको करता हुआभी भीतर सुखी और शोभायमान होता है ॥२६॥

नानाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्ति मागतः।

न कल्पतेन जानाति न शृणोति न पश्यति ॥२७॥

अन्वयः-नानाविचारसुश्रान्तः विश्रान्तिम् आगतः धीरः न कल्पते न जानाति न शृणोति न पश्यति ॥ २७॥

नाना प्रकारके संकल्पविकल्परूप विचारोंसे रहित होकर आत्माके विषं विश्रामको प्राप्त हुआ धीर कहिये ज्ञानी पुरुष संकल्पविकल्परूप मनके व्यापारको नहीं करता है, और न जानता है तथा बुद्धिके व्यापारको नहीं करता है, शब्दको नहीं सुनता है, रूपको नहीं