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भाषाटीकासहिता । १४१

तहां वादी शंका करता है कि, संसारको देखता हुआभी ब्रह्मरूप किस प्रकार हो सकता है तिसका समाधान करते हैं कि, जिसके अंतःकरणके विषं अहं- कारका अध्यास होता है, वह पुरुष लोकदृष्टि से न करता हुआभी संकल्पविकल्प करता है क्योंकि उसको कर्तृत्वका अध्यास होता है और अहंकाररहित जो धीर कहिये ज्ञानी पुरुष है, वह लोकदृष्टि से कार्य करता हुआभी अपनी दृष्टिसे नहीं करता है क्योंकि उसको कर्तृत्वका अभिमान नहीं होता है ॥२९॥

नोद्विग्नं न च सन्तुष्टमकर्तृस्पन्दवर्जितम्।

निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते ॥३०॥

अन्वयः-मुक्तस्य चित्तम् उद्विग्नम् न (भवति) सन्तुष्टम् च ना ( भवति ) अकर्तृस्पंदवर्जितम् निराशम् गतसन्देहम् राजते ॥३०॥

जो जीवन्मुक्त पुरुष है उसके चित्तमें कभी उद्वेग (घबडाहट ) नहीं होता है तिसी प्रकार संतोषभी नहीं होता है, क्योंकि कर्तापनेके अभिमानका उसके विर्षे लेशभी नहीं होता है, तिसी प्रकार उसको आशा तथा संदेहभी नहीं होता है, क्योंकि वह तो सदा जीवन्मुक्त है ॥३०॥