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१४४ अष्टावक्रगीता।

अन्वयः-मूढः अप्रयत्नात् वा प्रयत्नात् ( अपि ) निवृतिम् न आमोति प्राज्ञः तत्त्वनिश्चयमात्रेण निर्वृतः भवति ॥ ३४ ॥

जो मूढ पुरुष है और जिसको आत्मज्ञान नहीं हुआ है वह अनेक प्रकारका अभ्यास करके मनको वशमें करे अथवा न करे तौभी उसको निवृत्तिका सुख नहीं प्राप्त होता है, और जोआत्मज्ञानी हे उसने तो ज्योंही आत्म- स्वरूपका निश्चय किया कि, वह परम निवृत्तिके सुखको प्राप्त होता है ॥३४॥

शुद्धं बुद्ध प्रियं पूर्ण निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।

आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपराजनाः॥३५॥

अन्वयः-तत्र अभ्यासपराः जनाः शुद्धम् बुद्धम् प्रियम् पूर्णम् निष्प्रपञ्चम् निरामयम् तम् आत्मानम् न जानन्ति ।। ३५ ॥

सद्गुरु और वेदांतवाक्योंकी शरण लिये विना देहाभिमान दूर नहीं होता है तिस देहाभिमानसे मन जगत्के विर्षे आसक्त रहता है, तिस कारण वह पुरुष आत्मस्वरूपको नहीं जानता है क्योंकि आत्मस्वरूपता शुद्ध है, चैतन्यस्वरूप है और आनंदरूपपरिपूर्ण, संसा- रकी उपाधिसे रहित तथा विविधतापरहित है, इस कारण देहाभिमानी पुरुषको उसका ज्ञान नहीं होता है ॥३५॥