१४६ अष्टावक्रगीता।
मूढपुरुष योगाभ्यासरूप कर्म करके ब्रह्मरूप होनेकी इच्छा करता है, इस कारण ब्रह्मको नहीं प्राप्त होता है और ज्ञाता तो मोक्षकी इच्छा न करता है तोभी पर- ब्रह्मके स्वरूपको प्राप्त होता है क्योंकि उसका देहा- भिमान दूर हो गया है ॥३७॥
निराधाराग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः३८
अन्वयः-मूढाः निराधाराः ग्रहव्यग्राः संसारपोषकाः ( भवन्ति); बुधैः अनर्थमूलस्य एतस्य मूलच्छेदः कृतः ॥ ३८ ॥
"मूढ जो अज्ञानी पुरुष हैं वे सद्गुरु और वेदांतवा- क्योंके आधारके विनाही केवल योगाभ्यासरूप कर्म करकेही मैं मुक्त हो जाऊँगा इस प्रकार निरर्थक दुराग्रह करनेवाले और संसारको पुष्ट करनेवाले होते हैं, संसारको दूर करनेवाला जो ज्ञान जिसका उनके विषे लेशभी नहीं है और ज्ञानी पुरुष जो हैं उन्होंने जन्ममरणरूपअनर्थके मूलकारण इस संसारको ज्ञानके द्वारा मूलसेही छेदन कर दिया है ॥३८॥
नशान्ति लभते मूढो यतःशमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥३९॥