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भाषाटीकासहिता। १६७ - अन्वयः-सर्वदा निरातकस्य निर्विकारस्य धीरस्य तमः कवा प्रकाशः क हानम् च क ( तस्य ) किश्चन न ( भवति ) ॥७८॥ जो ज्ञानी है वह निर्विकार होता है, उसको काल आदिका भय नहीं होता है, उसको अंधकारका भान नहीं होता है, प्रकाशका भान नहीं होता है, उसको किसी बातकी हानि नहीं होती है, भय नहीं होता है, वह सर्वदा मुक्त होता है ॥ ७८॥ ___ व धैर्य क विवेकित व निरातंकता- पिवा। अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्स- भावस्य योगिनः॥७९॥ अन्धयः-तिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः धैर्यम कविवेकित्वम् क अपि च निरातङ्कता क ।। ७१ ॥ ज्ञानीका स्वभाव किसीके ध्यानमें नहीं आता है। क्योंकि ज्ञानी स्वभावरहित होता है उसका धीरजपना, ज्ञानीपना तथा निर्भयपना नहीं होता है ।। ७९ ॥ नस्वर्गों नैव नरको जीवन्मुक्तिन चैव हि ।बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्टयान किञ्चन ॥८॥ ( अन्वयः-अत्र बहुना उक्तेन किम योगदृष्टया स्वर्गः न नरक: न एव हि जीवन्मुक्तिः च एव न, किश्चन न (भवति )॥८॥