पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१८४

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अष्टावक्रगीता। अन्वयः-सर्वत्र अनवधानस्य हदि किश्चित् वासना न (भवति); (अतः) मुक्तात्मनः वितृप्तस्य ( तस्य) केन तुलना जायते ॥ ८९॥ जिसकी संपूर्ण विषयोंमें आसक्ति नहीं है और जिसके हृदयके विषं किचिन्मात्रभी वासना नहीं है और जो मात्मानंदके विषे तृप्त है, ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुषकी समान त्रिलोकीमें कौन हो सकता है ॥ ८९ ॥ जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपिन पश्यति। ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निवासनाहते ॥९॥ अन्वयः-(यः ) जानन् अपि न जानाति, पश्यन् अपि न पश्यति ब्रुान् अपि च न ब्रूते; ( सः) निर्वासनात् ऋते अन्यः कः ? ॥९ ॥ जो जानता हुआभी नहीं जानता है, देखता हुआभी नहीं देखता है, बोलता हुआभी नहीं बोलता है, ऐसा पुरुष ज्ञानीके सिवाय जगत्में और दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है, क्योंकि ज्ञानीको अभिमान तथा बासना नहीं होती है ॥९॥ भिक्षुर्वा भूपतिवापि यो निष्कामः स शोभते।भावेषु गलिता यस्य शोभ- नाशोभना मतिः॥९॥