पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/१८८

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अष्टावकगीता। ज्ञानी सुखी नहीं होता है, दुःखी नहीं होता है, विरक्त नहीं होता है, आसक्त नहीं होता है, मोक्षकी इच्छा नहीं करता है, मुक्त नहीं होता है, सत्रूप, भनिर्वचनीय होता है ॥ ९६॥ विक्षेपेऽपिन विभिप्तःममाधौ न ममा- धिमान् । जाड्यापन जडो धन्यः पाण्डित्यऽपिन पण्डितः॥२७॥ अन्वयः-धन्यः विक्षपे अपि लिक्षिप्त. न, ममाचौ समाधिमान् म, जाडये अपि जड. न; पाण्डिन्ये अपि पण्डित न ॥ ९७ ॥ ज्ञानीका विक्षेप दीखता है परंतु ज्ञानी विक्षिप्त नहीं होता है, ज्ञानीकी समाधि दीखती है परंतु ज्ञानी समाधि नहीं करता है, ज्ञानीके विपें जडपना दीखता है परंतु ज्ञानी जड नहीं होता है तथा ज्ञानीमें पंडित- पना दोखता है परंतु ज्ञानी पंडित नहीं होता है, क्योंकि यह संपूर्ण विकार देहाभिमानीके वर्षे रहते हैं ॥ ९७॥ मुक्तो यथास्थितिव यः कृतकर्तव्य- निवृतः।समः सर्वत्र वैतष्ण्यान्न स्मर- त्यकृतं कृतम् ।। ९८॥ अन्वयः-यथास्थितिस्वस्थः कृत कर्नव्यनिर्वृतः सर्वत्र समः मुक्तः बैतडण्यात कृतम् अकृतम् न स्मरति ॥ ९८॥