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१७८ अष्टावक्रगीता। जिस ज्ञानीकी वृत्ति शांत हो गई है वह जहां मनु- ष्योंकी सभा होय तहां जानेकी इच्छा नहीं करता है, तिसी प्रकार निर्जन स्थान जो वन तहांभी जानेकी इच्छा नहीं करता है, किंतु जिस समय जो स्थान मिल जाय तहांही स्थिति करके निवास करता है, क्योंकि नगरमें तथा वनमें ज्ञानीकी एक समान बुद्धि होती है अर्थात् ज्ञानीकी दृष्टिमें जैसा नगर है वैसाहीवन होता है।।१००॥ । इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं शान्तिशतकं नामा- टादश प्रकरणं समाप्तम् ॥१८॥ अथैकोनविंशतिकं प्रकरणम् १९. तत्त्वविज्ञानसंदंशमादाय हृदयोद- रात् । नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतोमया॥१॥ अन्वयः-मया हृदयोदरात् तत्त्वविज्ञानसंदंशम् आदाय नाना- विधपरामर्शशल्योद्धारः कृतः ॥ १॥ श्रीगुरुके मुखसे साधनसहित ज्ञानका श्रवण करके शिष्यको आत्मस्वरूपके विषं विश्रामप्राप्त हुआ, तिसका