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भाषाटीकासहिता। १८३ अन्वयः-निरञ्जने मत्स्वरूपे भूतानि क्व वा देहः क्व, इन्द्रियाणि क वा मनः क्व, शून्यम् क्व, नैराश्यम् क्व च ॥ १ ॥ पूर्व वर्णन की हुई आत्मस्थिति जिसकी हो जाय उस जीवन्मुक्तकी दशाका इस प्रकारणमें चौदह श्लोकों- करके वर्णन करते हैं कि, हे गुरो! मैं संपूर्ण उपाधिर- हित हूं, इस कारण मेरे विषे पंचमहाभूत तथा देह तथा इंद्रियें तथा मन नहीं है, क्योंकि में चेतनस्वरूपहूंतिसी प्रकार शून्यपना और निराशपनाभी नहीं है ॥१॥ क शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मनः । क तृप्तिः क वितृष्णात्वं गत- द्वन्द्रस्य मे सदा ॥२॥ अन्वयः-सदा गतद्वन्द्वस्य मे शास्त्रम् क्व, आत्मविज्ञानम् क, वा निर्विषयम् मनः क्व, तृप्तिः क्व, वितृष्णात्वम् व ॥ २ ॥ शास्त्राभ्यास करना, आत्मज्ञानका विचार करना, मनको जीतना, मनमें तृप्ति रखना और तृष्णाको दूर करना यह कोईभी मुझमें नहीं है, क्योंकि मैं इंदर- हित हूं ॥२॥ क विद्याक्कच वांविद्या काहं वेदं मम कवा। कबन्धः क्व च वा मोक्षःस्वरू- पस्य वरूपिता ॥३॥