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१८६ अष्टावक्रगीता। क प्रमाता प्रमाण वाक प्रमेयंक च प्रमा। क किञ्चित्क न किञ्चिद्वा सर्वदा विमलस्य मे ॥ ८॥ अन्वयः-सर्वदा विमलस्य मे प्रमाणं वा प्रमाता क्व प्रमेयं क प्रमा च क्व किञ्चित् क्व न किञ्चित् क्व ॥ ८॥ आत्मा उपाधिरहित है तिस आत्माके विर्षे प्रमाता, प्रमाण तथा प्रमेय ये तीनों नहीं है और कुछ है अथवा कुछ नहीं है, ऐसी कल्पनाभी नहीं है ॥ ८॥ क विक्षेपः क चैकाम्यं क निर्बोधः . क मूढता। क हषः क विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥९॥ अन्वयः-सर्वदा निष्क्रियस्य मे विक्षेपः क्व ऐकाम्यं चक्क निर्बोधः क्व मूहता क्व हर्षः क्व विषादः क्व ॥ ९ ॥ मैं सदा निर्विकार आत्मस्वरूप हूं इस कारण मेरे विषं विक्षेप तथा एकाग्रता, ज्ञानीपना, मूढता, हर्ष और विषाद ये विकार नहीं है ॥ ९॥ कचैष व्यवहारो वा क च सा परमा- र्थता । व सुखं क च वा दुःखं निर्वि- मर्शस्य मे सदा ॥१०॥