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भाषाटीकासहिता। २१

अन्वयः-(हे शिष्य !) साकारम् अनृतम् निराकार तु निश्च- लम् विद्धि एतत्तत्त्वोपदेशेन पुनर्भव सम्भवः न ॥ १८॥

श्रीगुरु अष्टावक्रमुनिने प्रथम एक श्लोकमें मोक्षका विषय दिखाया था कि, “विषयान् विषवत्त्यज" और "सत्यं पीयूषवद्भज" इस प्रकार प्रथम श्लोकमें सब उप- देश दिया। परंतु विषयोंके विषतुल्य होनेमें और सत्य- रूप आत्माके अमृततुल्य होनेमें कोई हेतु वर्णन नहीं किया सो १७ वें श्लोकके विषयमें इसका वर्णन करके आत्माको सत्य और जगत् को अध्यस्त वर्णन किया है. दर्पणके विषें दीखता हुआ प्रतिबिम्ब अध्यस्त है, यह देखने मात्र होता है सत्य नहीं, क्योंकि दर्पणके देखनेसे जो पुरुष होता है उसका शुद्ध प्रतिबिंब दीखता है और दर्पणके हटानसे यह प्रतिबिंब पुरुषमें लीन हो जाता है इस कारण आत्मा सत्य है और उसका जो जगत् वह बुद्धियोगसे भासता है तिस जगत् को विषतुल्य जान और आत्माको सत्य जान तब मोक्षरूप पुरुषार्थ सिद्ध होगा इस कारण अब तीन श्लोकोंसे जगत् का मिथ्यात्व वर्णन करते हैं कि-हे शिष्य ! साकार जो देह तिसको आदि ले संपूर्ण पदार्थ मिथ्या कल्पित हैं और निराकार जो आत्मतत्त्व सो निश्चल है और त्रिकालमें सत्य है, श्रुतिमेंभी कहा है " नित्यं विज्ञानमानंदं ब्रह्म " इस