पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/३४

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२२ अष्टावक्रगीता।

कारण चिन्मात्ररूप तत्वके उपदेशसे आत्माके विर्षे विश्राम करनेसे फिर संसारमें जन्म नहीं होता है अर्थात् मोक्ष हो जाता है ॥ १८॥

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।

तथैवास्मिन्शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः१९॥

अन्वयः-यथा एव आदर्शमध्यस्थे रूपे अन्तः परितः तु सः (व्याप्य वर्त्तते ) तथा एव अस्मिन् शरीरे अन्तः परितः पर- मेश्वरः (व्याप्य स्थितः)॥१९॥

अब गुरु अष्टावक्रजी वर्णाश्रमधर्मवाला जो स्थूल शरीर है तिससे और पुण्यअपुण्यधर्मवाला जो लिङ्ग- शरीर है तिससे विलक्षण परिपूर्ण चैतन्यस्वरूपका दृष्टांतसहित उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! वर्णाश्रमध- मरूप स्थूलशरीर तथा पुण्यपापरूपी लिंगशरीर यह दोनों जड हैं सो आत्मा नहीं हो सकते हैं क्योंकि आत्मा तो व्यापक है इस विषयमें दृष्टांत दिखाते हैं कि, जिस प्रकार दर्पणमें प्रतिबिंब पडता है, उस दर्प- णके भीतर और बाहर एक पुरुष व्यापक होता है। तिसी प्रकार इस स्थूल शरीरके विषे एकही आत्मा व्याप रहा है सो कहाभी है “यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जु सर्पवत् " अर्थात् जिस परमात्माके विषे