अष्टावक्रगीता। २४
अथ द्वितीयं प्रकरणम् २.
अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।
एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडंबितः॥१॥
अन्वयः-अहो अहम् निरंजनः शान्तः प्रकृतेः परः बोधः ( अस्मि ) अहम् एतावंतम् कालम् मोहेन विडंबितः एव ॥१॥
श्रीगुरुके वचनरूपी अमृत पानकर तिससे आत्माका अनुभव हुआ, इस कारण शिष्य अपने गुरुके प्रति आत्मानुभव कहता है कि, हे गुरो बडा आश्चर्य दीख- नेमें आता है कि, मैं तो निरंजन हूं, तथा सर्वउपाधि- रहित हूं, शान्त अर्थात् सर्वविकाररहित हूं तथा प्रकृ तिसे परे अर्थात् मायाके अंधकारसे रहित हूं, अहो ! आज दिनपर्यंत गुरुकी कृपा नहीं थी इस कारण बहुत मोह था और देह आत्माका विवेक नहीं था तिससे दुःखी था अब आज सद्गुरुको कृपा हुई सो परम आनं- दको प्राप्त हुआ हूं॥१॥
यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत्।
अतोमम जगत्सर्वमथवा न च किंचन॥२॥
अन्वयः-यथा ( अहम् ) एक: (एव) जगत् प्रकाशयामि तथा एनम देहम् (प्रकाशयामि) अतः सर्वम् जगत मम अथवा च किंचन न ॥२॥