२८ अष्टावक्रगीता।
आत्माज्ञानाजगद्भातिआत्मज्ञानानभासते।
रज्ज्वज्ञानादहिभांतितज्ज्ञानाद्भासतेनहि ७॥
अन्वयः-जगत् आत्माज्ञानात् माति आत्मज्ञानात् न भासते हि रज्ज्वज्ञानात् अहिः भाति तज्ज्ञानात् न भासते ॥ ७ ॥
-शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! यदि जगत् आत्मासे भिन्न नहीं है तो भिन्न प्रतीत किस प्रकार होता है ? तहां गुरु उत्तर देते हैं कि, जब आत्मज्ञान नहीं होता है, तब जगत् भासता है और जब आत्मज्ञान हो जाता है, तब जगत् कोई वस्तु नहीं है, तहां दृष्टांत दिखाते हैं कि, जिस प्रकार अंधकारमें पड़ी हुई रज्जु अमसे सर्प प्रतीत होने लगता है और जब दीपकका प्रकाश होता है तब निश्चय हो जाता है कि, यह सर्प नहीं है ॥७॥
प्रकाशोमेनिजरूपनातिरिक्तोऽस्म्यहंततः।
यदाप्रकाशतेविश्वंतदाहंभासएवहि ॥८॥
अन्वयः-प्रकाशः मे निजम् रूपम् अहम् ततः अतिरिक्त न आस्मि । हि यदा विश्व प्रकाशते तदा अहं भासः एव ॥८॥ जिसको आत्मज्ञान नहीं होता है उसको प्रकाशभी नहीं होता है, फिर जगत्की प्रतीति किस प्रकार होती है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं कि, नित्य बोधरूप प्रकाश मेरा (आत्माका ) स्वाभाविक स्वरूप है, इस