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भाषाटीकासहिता। २९

कारण मैं (आत्मा) प्रकाशसे भिन्न नहीं हूं, यहां शंका होती है कि, आत्मचैतन्य जब जगत्का प्रकाश है तो उसको अज्ञान किस प्रकार रहता है ? इसका समाधान यह है कि, जिस प्रकार स्वप्नमें चैतन्य अविद्याकी उपा- घिसे कल्पित विषयसुखको सत्य मानते हैं, तिससे चैतन्यमें किसी प्रकारका बोध नहीं होता है, आत्मचै- तन्य सर्वकाल में है परंतु गुरुके मुखसे निश्चयपूर्वक समझे विना अज्ञानकी निवृत्ति नहीं होती है और आत्मा सत्य है यह वार्ता वेदादि शास्त्रसंमत है, अर्थात् जगत्को आत्मा प्रकाश करता है यह सिद्धांत है॥८॥

अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयिभासते।

रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरेयथा ९

अन्वयः-अहो यथा शुक्तौ रूप्यम् रजौ फणी सूर्यकरे वारि ( तथा ) अज्ञानात् विकल्पितम् विश्वम् मयि भासते ॥९॥

शिष्य विचार करता है कि, मैं स्वप्रकाश हूं तथापि अज्ञानसे मेरे विषं विश्व भासता है, यह बडाही आश्चर्य है, तिसका दृष्टांतके द्वारा समाधान करते हैं कि, जिस प्रकार भ्रांतिसे सीपीमें रजतकी प्रतीति होती है, जिस प्रकार रज्जुमें सर्पकी प्रतीति होती है तथा जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंमें जलकी प्रतीति होती है तिसी प्रकार अज्ञानसे कल्पित विश्व मेरे विषेभासता है ॥९॥