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३० अष्टावक्रगीता।

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति।

मृदि कुम्भोजले बीचिकनकेकटकं यथा १०

अन्वयः-इदम् विश्वं मत्तः विनिर्गतम् मयि एव लयम् एष्यति यथा कुम्भः मृदि वीचिः जले कटकम् कनके ॥ १०॥

. शिष्य आशंका करता है कि, सांख्यशास्त्रवालोंके मतानुसार तो जगत् मायाका विकार है इस कारण जगत् मायासकाशसे उत्पन्न होता है और अंतमें मायाके विही लीन हो जाता है और आत्मा सकाशसे उत्पन्न नहीं होता है ? इस शंकाका गुरु समाधान करते हैं कि, यह मायासहित जगत् आत्माके सकाशसे उत्पन्न हुआ है और अंतमें मायाके विषही लीन होगा, तहां दृष्टांत देते हैं कि, जिस प्रकार घट मृत्तिकामेंसे उत्पन्न होता है और अंतमें मृत्तिकाके विषही लीन हो जाता है और जिस प्रकार तरंग जलमेंसे उत्पन्न होते हैं और अंतमें जलके विही लीन हो जाते हैं तथा जिस प्रकार कटक कुण्डलादि सुवर्णमेसे उत्पन्न होते हैं और सुवर्णमेंही अंतमें लीन हो जाते हैं। तिसी प्रकार मायासहित जगत आत्माके सकाशसे उत्पन्न होता है और अंतमें मायाके विही लीन हो जाता है, सोई श्रुतिमेभीकहा है " यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्र- यन्त्यभिसंविशन्ति " ॥१०॥