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भाषाटीकासहिता। ३१

अहो अहंनमो मह्यं विनाशीयस्य नास्तिमे।

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तंजगन्नाशेपितिष्ठतः॥११॥

अन्वयः-अहो अहम् ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तम् ( यत् ) जगत् ( तस्य ) नाशे अपि यस्य मे विनाशः न अस्ति ( तस्मै ) मह्यम् नमः ॥ ११॥

शिष्य आशंका करता है कि, यदि जगत्का उपा- दान कारण ब्रह्म होगा तब तो ब्रह्मके विषं अनित्यता आवेगी, जिस प्रकार घट फूटता है और मृत्तिका विखर जाती है, तिसी प्रकार जगत्के नष्ट होनेपर ब्रह्मभी छिन भिन्न (विनाशी) हो जायगा ? इस शंकाका समाधान करते हुए गुरु कहते हैं कि, मैं ( आत्मा ब्रह्म ) संपूर्ण उपादान कारण हूं, तोभी मेरा नाश नहीं होता है यह बडा आश्चर्य है. सुवर्ण कटक और कुण्डलका उपादान कारण होता है और कस्क कुंडलके टूटनेपर सुवर्ण विकारको प्राप्त होता है, परंतु मैं तो जगत्का विवर्ता- विष्ठान हूं अर्थात् जिस प्रकार रज्जुमें सर्पकी भ्रांति होनेपर सर्प विवर्त कहाता है और रज्जु अधिष्ठान कहाता तिसी प्रकार जगत् मेरे (आत्माके) विषे प्रतीति मात्र है, जिस प्रकार दूधका दधि वास्तविक अन्यथा- भाव (परिणाम) होता है, तिस प्रकार जगत् मेरा परि- णाम नहीं है, मैं संपूर्ण जगत्का कारण और अविनाशी