पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/४८

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

३६ अष्टावक्रगीता।

शिष्य शंका करता है कि यदि आत्मा निरंजन है तो दुःखका संबंध किस प्रकार होता है, तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, सुखदुःख भ्रांतिमात्र है, वास्त- विक नहीं, निरंजन आत्माके विर्षे द्वैतमात्रसे सुखदुःख भासता है वास्तवमें आत्माके विषं सुखदुःख कुछभी नहीं होता है तहां शिष्य प्रश्न करता हे कि, हे गुरो! द्वैत- भ्रमको औषधि कहिये जिसके सेवन करनेसे द्वैतभ्रमकी निवृत्ति होती है ! तिसका गुरु उत्तर देते हैं कि, हे शिष्य ! मैं आत्मा हूं, अमल हूं, माया और मायाका कार्य जो जगत् तिससे रहित चिन्मात्र अद्वितीयरूप हूं और दृश्यमान यह संपूर्ण संसार जड और मिथ्या है, सत्य नहीं है, ऐसा ज्ञान होनेसे द्वैतभ्रम नष्ट हो जाता है, इसके विना दूसरी द्वैत भ्रमसे उत्पन्न हुए दुःखके दूर करनेकी अन्य औषधि नहीं है ॥१६॥

बोधमात्रोऽहमज्ञानाडुपाधिः कल्पितोमया।

एवंविमृशतोनित्यनिर्विकल्पेस्थितिर्मम १७

अन्वयः-अहम् बोधमात्रः मया अज्ञानात् उपाधिः कल्पितः एवम् नित्यम् विमृशतः मम निर्विकलो स्थितिः (प्रजाता)॥१७॥

शिष्य प्रश्न करता है कि, आत्माके विर्षे द्वैतप्रपंचका अध्यास किस प्रकार हुआ है और वह कल्पित है या वास्तविक हे तिसका गुरु समाधान करते हैं कि, मैं