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३८ अष्टावक्रगीता।

रूप हूं, तहां शिष्य शंकित होकर प्रश्न करता है कि हे गुरो ! वेदान्तशास्त्र विचारका जो फल है सो कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि भ्रांतिकी निवृत्तिही वेदांतशास्त्रके विचारका फल है क्योंकि बडा आश्चर्य है जो मेरे विर्षे स्थितभी जगत् वास्तवमें मेरे विषं स्थित नहीं है इस प्रकार विचार करनेपरभी भ्रांतिमात्रही नष्ट हुई, परमानं- दकी प्राप्ति नहीं हुई इससे प्रतीत होता है कि, भ्रांतिकी निवृत्तिही शास्त्रविचारका फल है, तहां शिष्य कहता है कि, हे गुरो ! भ्राति कैसी थी जो विचार करनेपर तुरंतही नष्ट हो गई, तिसका गुरु उत्तर देते है कि, भ्राति निराश्रय अर्थात् अज्ञानरूपथी सोविचारसे नष्ट हो गई ॥१८॥

स शरीरमिदंविश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम् ।

शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिकल्पनाधुना॥१९॥

अन्वयः-इदम् शरीरम् विश्वं किञ्चित् न इति निश्चितम् आत्मा व शुद्धचिन्मात्रः तत् अधुना कल्पना कस्मिन् ( स्यात् ) ॥ १९॥

शिष्य शंका करता है कि उस मुक्त पुरुषके विभी प्रपंचका उदय होना चाहिये, क्योंकि रज्जु होती है तो उसमें कभी अंधकारके विषे सर्पकी भ्रांति होही जाती है, तिसी प्रकार अधिष्ठान जो ब्रह्म है तिसके विर्षे द्वैत (प्रपंच ) की कल्पना हो जाती है इस शंकाका गुरु