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४० अष्टावक्रगीता।

संपूर्ण मिथ्या हैं, तिन शरीरादिके साथ सच्चिदानंद- स्वरूप जो में तिस मेरा कोई कार्य नहीं है, क्योंकि संपूर्ण विधिनिषेधरूप कार्य अज्ञानी पुरुषके होते हैं, ब्रह्मज्ञानीके नहीं ॥२०॥

अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।

अरण्यभिवसंवृत्तंकरतिकरवाण्यहम् ॥२१॥

अन्वयः-अहो न दैतम् पश्यतः मम जनसमूहे अपि अरण्यम् इव संवृत्तम् अहम् क रतिम् करवाणि ॥२१॥

अब इस प्रकार वर्णन करते हैं कि, जिस प्रकार स्वर्ग नरक आदिको अवास्तविक वर्णन किया तिसी प्रकार यह लोकभी अवास्तविक है इस कारण इस लोकमें मेरी प्रीति नहीं होती है, बडे आश्चर्यकी वार्ता है कि, मैं जनप्तमूहमें निवास करता हूं, परंतु मेरे मनको वह जनसमूह अरण्यसा प्रतीत होता है, सो मैं इस अवा- स्तविक कहिये मिथ्याभूत संसारके विषं क्या प्रीति करूं ? ॥२१॥

नाहंदेहो न मेरेहोजीवो नाहमहंहि चित् ।

अयमेवहिमेबन्धआसीद्याजीवितेस्टहा२२॥

अन्वयः-अहम् देहः न मे देहः न अहम् जीवः न हि अहम् चित् मे अयम् एव हि बन्धः या जीविते स्पृहा आसीत् ॥ २२॥