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भाषाटीकासहिता। ४१

शिष्य शंका करता है कि, हे गुरो ! पुरुष शरीरके विषे मैं हूं मेरा है इत्यादि व्यवहार करके प्रीति करता है इस कारण शरीरके विर्षे तो स्पृहा करनीही होगी, तिसका समाधान करते हैं कि, देह मैं नहीं हूं, क्योंकि देह जड है और देह मेरा नहीं है, क्योंकि मैं तो असंग हूं और जीव जो अहंकार सो मैं नहीं, तहां शंका होती है कि, तु कौन है ? तिसके उत्तरमें कहते हैं कि, मैं तो चैतन्यस्वरूप ब्रह्म हूं तहां शंका होती है कि, यदि आत्मा चैतन्यस्वरूप है, देहादिरूप जड नहीं है तो फिर ज्ञानी पुरुषोंकीभी जीवन में इच्छा क्यों होती है ? तिसका समाधान करते हैं कि, यह जीवनेकी जो इच्छा है सोई बंधन है, दूसरा बंधन नहीं है, क्योंकि, पुरुष जीवन के निमित्तहो सुवर्णको चोरी आदि अनेक प्रका- रके अनर्थ करके कर्मानुसार संसारबंधनमें बँधता है और सच्चिदानंदस्वरूप आत्माके वास्तविक स्वरू- पका ज्ञान होनेपर पुरुषकी जीवनमें स्पृहा नहीं रहती है ॥२२॥

अहोभुवनकल्लोलैविचित्र क्समुत्थितम् ।

मय्यनन्तमहाम्भोधौचित्तवातेसमुद्यते॥२३॥

अन्वयः-अहो अनन्तमहाम्भोधौ मयि चित्तवाते समुद्यते विचित्रः भुवनकल्लोलैः द्राक्समुत्थितम् ॥ २३ ॥