४४ अष्टावक्रगीता।
की आत्मज्ञानके अनुभवसे युक्तभी अपने शिष्यको व्यवहारमें स्थित देखकर उसके आत्मज्ञानानुभवकी परीक्षा करनेके निमित्त उसकी व्यवहारके विषे स्थितिकी निंदा करके आत्मानुभवात्मक स्थितिका उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! अविनाशी कहिये त्रिकालमें सत्य- स्वरूप आत्माको किसी देशकालमें भेदको नहीं प्राप्त होनेवाला जानकर, यथार्थरूपसे आत्मज्ञानी धैर्यवान् जो तू तिस तेरी व्यावहारिक अर्थके संग्रह करनेमें प्रीति किस कारण देखनमें आती है ॥१॥
आत्मज्ञानादहोप्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
शुक्रज्ञानतोलोभोयथारजतविभ्रमे॥२॥
अन्वयः-अहो (शिष्य ) ! यथा शुक्तेः अज्ञानतः रजतविभ्रमे लोभः ( भवति तथा) आत्मज्ञानात् विषयभ्रमगोचरे प्रीतिः ( भवति)॥२॥
विषयके विषं जो प्रीति होती है सो आत्माके अज्ञा- नसे होती है इस वार्ताको दृष्टांत और युक्तिपूर्वक दिखाते हैं, अहो शिष्य ! जिस प्रकार आत्माके सीपीका ज्ञान होनेसे रजतकी भ्रांति करके लोभ होता है, तिसी प्रकार आत्माके अज्ञानसे भ्रांति ज्ञानसे प्रतीत होनेवाले विष- योंमें प्रीति होती है। जिनको आत्मज्ञान होता है, उन ज्ञानियोंकी विषयोंमें कदापि प्रीति नहीं होती है ॥२॥