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भाषाटीकासहिता। ४५

विश्वस्फुरतियत्रेदंतरंगा इव सागरे ।

सोऽहमस्मीतिविज्ञायकिंदीनइवधावसि ॥३॥

अन्वयः-सागरे तरङ्गा इव यत्र इदम् विश्वम् स्फुगति सः अहम् अस्मि इति विज्ञाय दीनः इव किम् धावासे ॥ ३ ॥

ऊपर इस प्रकार कहा है कि, विषयोंके विषं जो प्रीति होती है, सो अज्ञानसे होती है, अब इस वार्ताका वर्णन करते हैं कि, संपूर्ण अध्यस्तको अधिष्ठानभूत जो आत्मा तिसके जाननेपर फिर विषयोंके विष प्रीति नहीं होती है, जिस प्रकार समुद्रके विषे तरंग स्फुरते हैं, अर्थात् अभिन्नरूप होते हैं, तिसी प्रकार जिस आत्माके विषं यह विश्व अभिन्नरूप है, वह निर्विशेष आत्मा मैं हूं, इस प्रकार साक्षात् करके दीन पुरुषकी समान मैं हूं, और मेरा है इत्यादि अभिमान करके क्यों दौडता है॥३॥

श्रुत्वापिशुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्।

उपस्थेऽत्यंतसंसक्तोमालिन्यमधिगच्छति ४

अन्वयः शुद्धचैतन्यम् अति सुन्दरम् आत्मानम् श्रुत्वा अपि उपस्थे अत्यन्तसंसक्तः ( अत्मज्ञः ) मालिन्यम् अधिगच्छति॥४॥

ऊपरके तीन श्लोकोंमें शिष्यकी व्यवहारावर की निंदा की अब संपूर्णही ज्ञानियोंकी व्यवहारावस्था में स्थितिकी निदा करते हैं कि, गुरुके मुखसे वदान्तवाः क्योंसे अतिसुंदरशुद्ध चैतन्य आत्माको श्रवण करके