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भाषाटीकासहिता। 4७

आत्मज्ञानीको विषयोंके विषं प्रीति करनेकी निंदा करते हुए कहते हैं कि, परम अद्वैत अर्थात् सजातीय- स्वगतभेदशून्य जो ब्रह्म तिसका आश्रय और मोक्ष- रूपो सच्चिदानंदस्वरूपके विषं निवास करनेवाला पुरुष कामवश होकर नाना प्रकारकी क्रीडाके अभ्याससे अर्थात् नाना प्रकार के विषयोंमें लवलीन होकर विकल देखनेमें आता है, यह बडाही आश्चर्य है ॥६॥

उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रमबधा-तिदुर्बलः।

आश्चर्य काममाकांक्षेत्कालमंतमनुश्रितः॥

अन्वयः-अन्तम् कालम् अनुश्रितः अतिदुर्बलः ( ज्ञानी) उद्भूतम् ज्ञानदुर्मितम् अवधार्य (अपि ) कामम् आकांक्षेत् ( इति ) आश्चर्यम् ॥ ७ ॥

अब इस वार्ताका वर्णन करते हैं कि, विवेकी पुरु- षको सर्वथा विषयवासनाका त्याग करना चाहिये, उद्भूत कहिये उत्पन्न होनेवाला जो काम वह महाशत्रु ज्ञानको नष्ट करनेवाला है, ऐसा विचार करकेभी अति दीन होकर ज्ञानी विषयभोगकी आकांक्षा करता है, यह बडेही आश्चर्यकी वार्ता है, क्योंकि जो पुरुष विषयवासनामें लवलीन होता है वह कालपास होता है अर्थात् क्षण- मात्रमें नष्ट हो जाता है इस कारण ज्ञानी पुरुषको विष- यतृष्णा नहीं रखनी चाहिये ॥७॥।