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भाषाटीकासहिता। ५१

तिसका मन मोक्षके विषेभी निराश होता है, अर्थात् वह मोक्षकीभी अभिलाषा नहीं करता है, ऐसे ज्ञानीकी किससे तुलना की जाय अर्थात् ज्ञानीके तुल्य कोईभी नहीं होता है ॥१२॥

स्वभावादेव जानाति दृश्यमेतन किञ्चन ।

इदंग्राह्यमिदंत्याज्यंसकिंपश्यतिधीरधी १३

अन्वयः-स्वभावात् एव ( इदम् ) दृश्यम् किञ्चन न ( इति ) जानाति सः धीरधीः इदम् ग्राह्यम् इदम् त्याज्यम् ( इति ) किम् पश्यति ॥ १३ ॥

ज्ञानी पुरुषको “ यह ग्रहण करने योग्य है, यह त्यागने योग्य है " इस प्रकार व्यवहार नहीं करना चाहिये, इस वार्ताका वर्णन करते हैं, स्वभावसेहीअर्थात् अपनी सत्तासेही जिस प्रकार सीपीके विषे रजत कल्पना मात्र होती है, तिसी प्रकार यह दृश्यमान द्वैत, प्रपंच मिथ्यारूप है, जगत् कल्पित है अर्थात् सत् है न असत् इस प्रकार जाननेवाले ज्ञानीकी बुद्धि धैर्यसंपन्न हो जाती है, तोभी वह ज्ञानी “यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है, यह वस्तु त्यागने योग्य है" इस प्रकारका व्यवहार क्यों करता है, यह बडेही आश्चर्यकी वार्ता है अर्थात् ज्ञानी पुरुषको कदापि यह वस्तु त्यागने योग्य है, यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है इस प्रकार व्यवहार नहीं करना चाहिये ॥१३॥