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भाषाटीकासहिता। ५३

इस प्रकार श्रीगुरुने शिष्यकी परीक्षा लेनेके निमित्त माक्षेप करे, अब तिसके उत्तरमें शिष्य गुरुके प्रति इस प्रकार कहता है कि, ज्ञानी संपूर्ण व्यवहारोंको मिथ्या जा- नता है, और प्रारब्धानुकूल नाना प्रकारके जो भोग प्राप्त होते हैं उनको आत्मविलास मानता है. आनंदकी वार्ता है कि, जो आत्मज्ञानी है वह अपने आत्माको संपूर्ण जगत्का अधिष्ठान जानता है, वही धैर्यवान् है, अर्थात् उसका चित्त विषयोंमें आसक्त नहीं होता है, प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए निषयोंकी क्रीडाके विषे रमण करने- वाले तिस ज्ञानीकी संसारके विषं देहाभिमान करनेवाले सूखाँसे तुल्यता नहीं होती है, सोई गीताके विर्षे श्रीकृष्ण भगवान्ने कहा है-"तत्ववित्त महाबाहो गुणकर्म- विभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तत इति मत्वा न सज्जते ॥" अर्थात् आत्मज्ञानी सम्पूर्ण व्यवहारोंमें रहता है परंतु किसी कार्यका अभिमान नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है कि, गुण गुणोंके विषं वर्तते हैं, मेरी कोई हानि नहीं है, मैं तो साक्षी हूं॥१॥

यत्पदंप्रेप्सवोदीनाः शकाद्याः सर्वदेवताः।

अहोतत्रस्थितोयोगीनहर्षमुपगच्छति ॥२॥

अन्वयः-अहो शकाद्याः सर्वदेवताः यत्पदम् प्रेप्सवः (सन्तः) दीनाः वर्तन्ते तत्र स्थितः योगी हर्षम् न उपगच्छति ॥२॥