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५४ अष्टावक्रगीता।

को तहां शंका होती है कि, सांसारिक व्यवहारोंका वर्ताव करनेवाला ज्ञानी संसारी पुरुषको तुल्य क्यों नहीं होता है, तिसका समाधान करते हैं कि, बडे आश्चर्यकी वार्ता है, हे गुरो! इंद्र आदि संपूर्ण देवता जिस आत्मपदकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए आत्मपदकी प्राप्ति न होनेसे दीनताको प्राप्त होते हैं, तिस सच्चिदानंद- स्वरूप आत्मपदके विषं स्थित अर्थात् तत् त्वम् पदार्थके ऐक्यज्ञानसे आत्मपदके विषं वर्तमान आत्म- ज्ञानी विषयभोगसे सुखको नहीं प्राप्त होता है और तिस विषयसुखका नाश होनेपर शोक नहीं करता है ॥२॥

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शोह्यन्तनं जायते।

नह्याकाशस्यधूमेनदृश्यमानापिसङ्गतिः॥३॥

अन्वयः-( यथा ) हि आकाशस्य धूमेन ( सह ) दृश्यमाना अपि ( सङ्गतिः ) न ( अस्ति तथा ) हि तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्याम् अन्तः स्पर्शः न जायते ॥ ३ ॥

अब यह वर्णन करते हैं कि, आत्मज्ञानी पुण्य और पापसे लिप्त नहीं होता है 'तत् त्वम् ' पदार्थकी एक- ताको जाननेवाले तत्वज्ञानीको अंतःकरणके धर्म जो पुण्य पाप तिनसे संबंध नहीं होता है, वह वेदोक्त विधि निषेधके बंधनमें नहीं होता है, क्योंकि जिसको आत्म- ज्ञान हो जाता है, उसके अंतःकरणमें पाप पुण्यका