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५६ अष्टावक्रगीता।

आब्रह्मस्तम्बपर्य्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।

विज्ञस्यैवहिसामर्थ्यमिच्छानिच्छाविसर्जने ५

अन्वयः-हि आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते चतुर्विधे भूतग्रामे विज्ञस्य एव इच्छानिच्छाविसर्जने सामर्थ्य ( अस्ति ) ॥५॥

शिष्य शंका करता है कि, ज्ञानी अपनी इच्छाके अनुसार वर्तता है, या देवेच्छासे वर्तता है ? तिसका गुरु उत्तर देते हैं कि, ब्रह्मासे तृणपर्यंत चार प्रकारके प्राणियोंसे भरे हुए ब्रह्मांडके विषे इच्छा और अनिच्छा यह दो पदार्थ किसीके दूर करनेसे दूर नहीं होते हैं परंतु ज्ञानीको ऐसी सामर्थ्य है कि, न उसको इच्छा है, न अनिच्छा है ॥५॥

आत्मानमद्रयं कश्चिन्जानाति जगदीश्वरम् ।

यद्वेत्ति तत्स कुरुते नभयं तस्य कुत्रचित्॥६॥

अन्वयः-कश्चित् जगदीश्वरम् आत्मानम् अद्वयम् जानाति; सः यत् वेत्ति तत् कुरुते; तस्य कुत्रचित् भयम् न ( भवति ) ॥ ६ ॥

म अब इस वार्ताका वर्णन करते हैं कि, ज्ञानी पुरुष सर्वथा निर्भय होता है, आत्मज्ञानसे द्वैतप्रपंचको दूर करनेवाले ज्ञानीको भय नहीं होता है परंतु अद्वितीय आत्मस्वरूपको हजारोंमें कोई एकही जानता है और अद्वितीय आत्मस्वरूपका ज्ञान होनेके अनंतर कोई