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५८ अष्टावक्रगीता।

हुआ लयको प्राप्त हो अर्थात् देहादि संपूर्ण वस्तु जड हैं उसका त्याग कर और मिथ्या जान ॥१॥

उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्रुदः।

इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लयं व्रज ॥२॥

अन्वयः-(हे शिष्य ! ) वारिधेः बुद्धद इव भवतः विश्वम् उदेति; इति एकम् आत्मानम् ज्ञात्वा एवम् एव लयम् व्रज ॥२॥

हे शिष्य ! यह जगत् अपनी भावनासे हुआ है अर्थात् जिस प्रकार जलसे बुलबुले भिन्न नहीं होते हैं, तिसी प्रकार तुझ (आत्मा) से यह जगत् भिन्न नहीं है, सजातीय विजातीय और स्वंगत ये तीन भेद आत्माके विषं नहीं हैं आत्मा एक है, सो मेंही हूं इस प्रकार जानकर आत्मस्वरूपके विषे लयको प्राप्त हो, ( एक मनुष्य जातिके विषं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि अनेक भेद हैं. यह सजातीय भेद कहाता है, और मनुष्य, पशु, पक्षी यह जो भिन्न २ जाति हैं. सो विजातीय भेद हैं तथा एक देहके विषं हाथ, चरण, मुख इत्यादि जो भेद हैं सो स्वगत भेद कहाता है )॥२॥

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वादिश्वंनास्त्यमलेत्वयि ।

रज्जसर्प इव व्यक्तमेवमेव लयं व्रज ॥३॥

अन्वयः-प्रत्यक्षम् अपि व्यक्तम् विश्वम् रज्जुसः इव अवस्तुत्वात् अमले त्वयि न अस्ति; (तस्मात् ) एवम् एव लयम् व्रज ॥३॥