भाषाटीकासहिता। ६९
तहां शंका होती है कि, जब प्रत्यक्ष हार और सर्प आदिका भेद प्रतीत होता है तो फिर किस प्रकार हार आदिको विलय हो सकता है ? तिसका समाधान करते हैं कि, रज्जु अर्थात् डोरेके विषे सर्पकी प्रत्यक्ष प्रतीति होती हे परंतु वास्तवमें वह सर्प नहीं होता है, इसी प्रकार यह प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतीत होनेवाला जगत् निर्मल आत्माके विषं नहीं है, इस प्रकारही जानकर आत्म- स्वरूपके विषे लीन हो ॥३॥
समदुःखसुखःपूर्णआशानैराश्ययोःसमः।
समजीवितमृत्युःसन्नेवमेव लयं व्रज ॥४॥
अन्वयः-हे ( शिष्य ! ) पूर्णः समदुःखसुखः ( तथा.) आशानैराश्ययोः समः सन् एवम् एव लयं व्रज ॥ ४ ॥
हे शिष्य ! तू (आत्मा) आत्मानंदसे परिपूर्ण इस कारणही प्रारब्धवश प्राप्त हुए सुख और दुःखके विर्षे समदृष्टि करनेवाला तथा आशा और निराशाके विर्षे समदृष्टि करनेवाला और जीवन तथा मरणके समदृष्टिसे देखता हुआ ब्रह्मदृष्टिरूप लयको प्राप्त हो ॥४॥
इति श्रीमदष्टावक्रगीतायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटी- कया सहितमाचार्योक्तं लयचतुष्टयं नाम पञ्च प्रकरणं समाप्तम् ॥५॥