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भाषाटीकासहिता । ६१

अन्वयः-सः अहम् महोदधिः इव, प्रपञ्चः वीचिसनिमः इति झानम् ( अनुभवसिद्धम् ); तथा एतस्य त्यागः न, ग्रहः न, ज्यः (न)॥२॥

इस घट और आकाशके दृष्टांतसे देह और आत्माके भेदकी शंका होती है, तहां कहते हैं कि, वह पूर्वोक्त मैं (आत्मा) समुद्रकी समान हूं और प्रपंच तरंगोंकी समान है, इस प्रकारका ज्ञान अनुभवसिद्ध है, तिस कारण इस आत्माका त्याग ग्रहण और लय होना संभव नहीं है ॥२॥

अहंसशुक्तिसंकाशो रूप्यवदिश्वकल्पना ।

इतिज्ञानंतथेतस्य न त्यागोन ग्रहोलयः ॥३॥

अन्वयः-सः अहम् शुक्तिसङ्काशः, विश्वकल्पना रूप्यवत्, इति ज्ञानम् तथा एतस्य, त्यागः न, ग्रहः न, लयः (न) ॥३॥

- इस समुद्र और तरंगोंके दृष्टांतसे आत्माके विषे विकारकी शंका होती है इस शिष्यके संदेहका गुरु समाधान करते हैं कि, जिस प्रकार सीपीके विषं रजत कल्पित होता है इसी प्रकार आत्माके विषं यह जगत् कल्पित है, इस प्रकारका वास्तविक ज्ञान होनेपर आ- त्माका त्याग, ग्रहण और लय नहीं हो सकता है ॥३॥

अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागोन ग्रहो लयः४॥