पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/७५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

भाषाटीकासहिता। ६३

पंचम प्रकरणके विषे गुरुने इस प्रकार वर्णन किया कि, लय योगका आश्रय किये विना सांसारिक व्यव- हारोंका विक्षेप अवश्य होता है, तिसके उत्तरमें षष्ठ प्रकरणके विषे शिष्यने कहा कि, आत्माके विषे इष्ट- अनिष्टभाव तिस कारण आत्माका त्याग, ग्रहण, लय आदि नहीं होता है, अब इस कथनकाही पांच श्लोकोंसे विवेचन करते हैं कि, मैं चैतन्यमय. अनंत समुद्र हूं और मेरे विषे संसाररूपी नौका मनरूपी वायुके वेगसे चारों ओरको घूमती है तिस संसाररूपी नौकाके भ्रम- णसे मेरा मन इस प्रकार चलायमान नहीं होता है, जिस प्रकार नौकासे समुद्र चलायमान नहीं होता है॥१॥

मय्यनन्तमहाम्भोधौजगदीचिःस्वभावतः ।

उदेतु वास्तमायातुन मे वृद्धिर्न च क्षतिः॥२॥

अन्वयः-अनन्तमहाम्भोधौ मयि स्वभावतः जगद्दीचिः उदेतु; वा अस्तम् आयातु, मे वृद्धिः न क्षतिः च न ॥ २॥

.इस प्रकार यह वर्णन किया कि, संसारके व्यवहारोंसे आत्माकी कोई हानि नहीं होती है और अब यह वर्णन करते हैं कि, संसारकी उत्पत्ति और लयसेभी आत्माकी कोई हानि नहीं होती है, मैं चैतन्यमय अनंतरूप समुद्र हूं, तिस मेरे (आत्माके) विषे स्वभावसे संसाररूपी तरंग उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, तिन संसार-