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64 अष्टावकगीता।

रूपी तरंगोंके उत्पन्न होनेसे मेरा कोई लाभ नहीं होता है और नष्ट होनेसे हानि नहीं होती है क्योंकि, में सर्वव्यापी हूं इस कारण मेरी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और मैं अनंत हूं इस कारण मेरा लय (नाश) नहीं हो सकता है ॥२॥

मय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्वनाम विकल्पना।

अतिशांतोनिराकार एतदेवाहमास्थितः॥३॥

अन्वयः-अनन्तमहाम्भोधौ मयि विश्वम् विकल्पना नाम ( अतः ) अहम् अतिशान्तः निराकारः एतत् एव मास्थितः (अस्मि ) ॥३॥

इस कहे हुए समुद्र और तरंगके दृष्टांतसे आत्माके विषं परिणामीपनेकी शंका होती है, तिस शंकाकी निवृत्तिके अर्थ कहते हैं कि, अनंतसमुद्ररूप जो मैं तिस मेरे विषं जगत् केवल कल्पनामात्र है सत्य नहीं है, इस कारणही में शांत कहिये संपूर्ण विकाररहित और निराकार तथा केवल आत्मज्ञानका आश्रित हूं ॥३॥

नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरञ्जने ।

इत्यसक्तोऽस्टह शान्त एतदेवाहमास्थितः४

अन्वयः-मावेषु आत्मा न, अनन्ते निरञ्जने तत्र भावः नो इति माम् मसक्तः भस्पृहः शान्तः एतत् एव आश्रितः (अस्मि)॥४॥