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भाषाटीकासंहिता। 65

अब आत्माकी शांतस्वरूपताकाही वर्णन करते हैं कि, देह इंद्रियादि पदार्थोंके विषे आत्मपना अर्थात् सत्यपना नहीं है, क्योंकि देहेंद्रियादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं और देह-इंद्रियादिरूप उपाधि आत्माके विषं नहीं है, क्योंकि आत्मा अनंत और निरंजन है, इस कारणही इच्छारहित और शांत तथा तत्वज्ञानका आश्रित हूं ॥४॥

अहो चिन्मात्रमेवाहमिंद्रजालोपमं जगत्।

अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥५॥

अन्वयः-अहो अहम् चिन्मात्रम् एव जगत् इन्द्रजालोपमम् अतः मम हेयोपादेयकल्पना कुत्र कथम् ( स्यात् ) ॥५॥

आत्मा इच्छादिरहित है इस विषयमें और हेतु कहते हैं कि, अहो मैं अलौकिक चैतन्यमात्र हूं और जगत इंद्रजाल कहिये बाजीगरके चरित्रोंकी समान है, इस कारण किसी पदार्थके विषे मेरे ग्रहण करनेकी और त्यागनेकी कल्पना किस प्रकार हो सकती है ? अर्थात् न तो मैं किसी पदार्थको त्यागता हूं और न ग्रहण करता हूं ॥५॥

इति श्रीमदृष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां । भाषार्टीकया सहितमनुभवपञ्चकविवरणं नाम सप्तमं प्रकरणं समाप्तम् ॥७॥