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68 अष्टावक्रगीता।

मुक्ति नहीं होती है यही कहते हैं कि, जबतक मैं देह हूं इस प्रकार अभिमान रहता है तबतकही यह संसारबंधन रहता है और जब मैं आत्मा हूं, देह नहीं हूं, इस प्रका- रका अभिमान दूर हो जाता है, तब मोक्ष होता है. इस प्रकार जानकर व्यवहार दृष्टि से न किसी वस्तुको ग्रहण कर न किसी वस्तु का त्याग कर ॥४॥

॥ इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं गुरुप्रोक्तं बन्धमोक्षव्य- वस्था नामाष्टमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ८॥

अथ नवमं प्रकरणम् ९.

कृताकृतेचदन्द्रानिकदाशान्तानिकस्य वा।

एवं ज्ञात्वेह निर्वदाद्भवत्यागपरोऽवती॥१॥

अन्धयः-कृताकृते द्वन्द्वानि कस्य कदा वा शान्ता एवम् ज्ञात्वा इह निर्वेदात् त्यागपरः अवती भव ॥ १॥

उपरके प्रकरणके विषं गुरुने कहा कि, " न किसी वस्तुको ग्रहण कर न त्याग कर तहां शिष्य प्रश्न करता है, त्यागकी क्या रीति है ? तिसके समाधानमें गुरु आठ श्लोकोंसे वैराग्य वर्णन करते हैं कि, कृत और भकृत अर्थात् यह करना चाहिये, यह नहीं करना