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७४ अष्टावक्रगीता।

परभी संसारके विषे शरीरकी स्थिति प्रारब्ध कर्मोंके अनुसार रहती है ॥८॥

ला इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां मा भाषाटीकया सहितं गुरुप्रोक्तं निर्वेदाष्टकं नाम नवमंप्रकरणं समाप्तम् ॥९॥

अथ दशमं प्रकरणम् १०.

विहाय वैरिणं काममर्थ चानथसङ्कुलम् ।

धर्ममप्येतयोहतुं सर्वत्रानादरं कुरु ॥१॥

अन्वयः-वैरिणम् कामम् अनर्थसंकुलम् अर्थम् च ( तथा ) एतयोः हेतुम् धर्मम् अपि विहाय सर्वत्र अनादरम् कुरु ॥ १॥

पूर्वमें विषयोंके विनाभी संतोषरूपसे वैराग्यका वर्णन किया, अब विषयतृष्णाके त्यागका गुरु उपदेश करते है, हे शिष्य! ज्ञानका शत्रु जो काम तिसका त्याग कर और जिसके पैदा करने में, रक्षा करने में तथा खर्च करनेमें दुःख होता है ऐसे सर्वथा दुःखोंसे भरे हुए अर्थ कहिये धनका त्याग कर, तथा काम और अर्थ दोनोंका हेतु जो धर्म तिसकाभी त्याग कर और तद्- नंतर धर्म अर्थ कामरूप त्रिवर्गके हेतु जो सकाम कर्म तिनके विषं आसक्तिका त्याग कर ॥१॥