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भाषाटीकासहिता। 75

स्वप्नेन्द्रजालवत्पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा ।

मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसम्पदः ॥२॥

अन्वयः-( हे शिष्य ! ) त्रीणि पंच वा दिनानि (स्थायिन्यः) मित्रक्षेत्रधनागारदार मायादिसम्पदः स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य ॥ २ ॥

-तहां शिष्य शंका करता है कि, स्त्री, पुत्रादि और अनेक प्रकारके सुख देनेवाले जो कर्म तिनका किस प्रकार त्याग हो सकता है तहां गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तीन अथवा पांच दिन रहनेवाले मित्र, क्षेत्र, धन, स्थान, स्त्री और कुटुंबी आदि संपत्तियोंको स्वप्न और इंद्रजालकी समान अनित्य जान ॥२॥

यत्रयत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै।

प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णःसुखीभव ३॥

अन्वयः-वै यत्र यत्र तृष्णा भवेत् तत्र संसारम् विद्धि (तस्मात्) प्रौढवैराग्यम् आश्रित्य वीततृष्णः ( सन् ) सुखी भव ॥ ३ ॥

अब यह वर्णन करते हैं कि, संपूर्ण काम्यकर्मों में अनादर करना रूप वैराग्यही मोक्षरूप पुरुषार्थका कारण है, जहां २ विषयोंके विषे तृष्णा होती है तहांही संसार जान, क्योंकि, विषयोंकी तृष्णाही कर्मोंके द्वारा संसारका हेतु होती है, तिस कारण दृढ वैराग्यका अव- लम्बन करके, अप्राप्त विषयोंमें इच्छारहित होकर आत्मज्ञानकी निष्ठा करके सुखी हो ॥३॥