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76 अष्टावकगीता।

तृष्णामात्रात्मको बन्धस्तन्नाशोमोक्ष उच्यते।

भासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः ॥४॥

। अन्वयः-बन्धः तृष्णामात्रात्मकः तन्नाशः मोक्षः उच्यते, भवासंसक्तिमात्रेण मुहुर्मुहुः प्राप्तितुष्टिः ( स्यात् ) ॥ ४ ॥

जाउपरोक्त विषयकोही अन्य रीतिसे कहते हैं, हे शिष्य! तृष्णामात्रही बडा भारी बंधन है और तिस तृष्णामात्रका त्यागही मोक्ष कहाता है, क्योंकि संसारके विर्षे आस- क्तिका त्याग करके वारंवार आत्मज्ञानसे उत्पन्न हुआ संतोषही मोक्ष कहाता है ॥ ४॥

त्वमेकश्चेतन शुद्धोजडं विश्वमसत्तथा ।

अ-विद्यापि न किञ्चित्सा का बुभुत्सातथापिते ५

अन्वयः-त्वम् एकः चेतनः शुद्धः ( आसि) विश्वम् जडम् तथा असत् ( अस्ति ) अविद्या आपि किंचित् न, तथा ते सा बुभुत्सा अपि का ? ॥ ५॥

तहां शंका होती है कि, यदि तृष्णामात्रही बंधन है तब तो आत्मप्राप्तिकी तृष्णाभी बंधन हो जायगी ? तहां कहते हैं कि, इस संसारमें आत्मा, जगत् और अविद्या ये तीनही पदार्थ हैं, तिन तीनोंमें आत्मा (तू) तो अद्वितीय, चेतन और शुद्ध है, तिन चैतन्यस्वरूप पूर्णरूप आत्माके जाननेकी इच्छा (तृष्णा) बंधन नहीं होता है, क्योंकि आत्मभिन्न जड पदार्थोके विषं इच्छा