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भाषाटीकासहिता। 77

करनाही तृष्णा कहाती है क्योंकि जड और अनित्य होनेके कारण जगत्के विषं इच्छा करना वंध्यापुत्रकी समान मिथ्या है, उस इच्छासे किसी प्रकारकी सिद्धि नहीं होती है, तिसी प्रकार मायाके जाननेकी इच्छा (तृष्णा) करनाभी निरर्थकही है, क्योंकि माया सत्- रूपकरके अथवा असत्ररूप करके कहनेमें नहीं आती है ॥५॥

राज्यं सुताःकलत्राणिशरीराणिसुखानिच ।

संसक्तस्यापिनष्टानितवजन्मनिजन्मनि ॥६॥

अन्वयः-संसक्तस्य अपि तव राज्यम् सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च जन्मनि जन्मनि नष्टानि ॥ ६॥

अब संसारकी जडता और अनित्यताको दिखाते हैं कि, हे शिष्य ! राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुख इनके विषे तैंने अत्यंतही प्रीति की तबभी जन्मजन्ममें नष्ट हो गये, इस कारण संसार अनित्य है ऐसा जानना चाहिये ॥६॥

अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा।

एभ्यः संसारकान्तारेन विश्रान्तमभून्मनः७

अन्वयः-अर्थेन कामेन सुकृतेन कर्मणा अपि अलम्, (यतः) संसारकान्तारे एभ्यः मनः विश्रान्तम् न अभूत् ॥७॥