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78 अष्टावक्रगीता।

अब धर्मअर्थकामरूप त्रिवर्गकी इच्छाका निषेध करते हैं, हे शिष्य! धनके विषे, कामके विषे और सकाम कर्मोंके विषेभी कामना न करके अपने आनन्दस्वरूपके विषे परिपूर्ण रहे, क्योंकि, संसाररूपी दुर्गममार्गके विषे भ्रमता हुआ मन इन धर्म-अर्थ-कामसे विश्रामको कदापि नहीं प्राप्त होयगा तो कदापि संसारबंधनका नाश नहीं होयगा ॥७॥

कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।

दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्॥८॥

अन्वयः-( हे शिष्य ! ) आयासदम् दुःखम् कर्म कायेन मनमा गिरा कति जन्मानि न कृतम् तत् अद्य अपि उपरम्यताम्८॥

अब क्रियामात्रके त्यागका उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! महाक्लेश और दुःखोंका देनेवाला कर्मकाय, मन और वाणीसे कितने जन्मोंपर्यंत नहीं किया ? अर्थात् अनेक जन्मोंमें किया, और तिन जन्मजन्ममें किये हुए कर्मोंसे तैंने अनर्थही पाया, तिस कारण अब तो तिन कर्मोका त्याग कर ॥८॥

इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं गुरुप्रोक्तमुपशमाष्टकं नाम दशमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १०॥