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82 अष्टावकगीता।

भोगनेवाला नहीं होता है, क्योंकि उस पुरुषको मैं कता हूं, ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥४॥

चिन्तयाजायतेदुःखंनान्यथेहेतिनिश्चयी।

तयाहीनःसुखी शान्तःसर्वत्रगलितस्टहः॥

अन्वयः-इह दुःखम् चिन्तया जायते, अन्यथा न इति निश्चयी (पुरुषः) तया हीनः ( सन् ) सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः ( भवति ) ॥५॥

तहां शंका होती है कि, यह कैसे हो सकता है कि, कर्म करकेभी पापपुण्यरूप फलका भोक्ता न होता हे ? तहां कहते हैं, इस संसारके विषं दुःखमात्र चिन्तासे उत्पन्न होता है, किसी अन्य कारणसे नहीं होता है, इस प्रकार निश्चयवाला चिन्तारहित पुरुष शान्ति तथा सुखको प्राप्त होता है, और उस पुरुषकी संपूर्ण विष- योंसे अभिलाषा दूर हो जाती है ॥५॥

नाहंदेहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।

कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥

अन्वयः-अहम् देहः न, मे देहः न, (किन्तु ) अहम् बोधः इति निश्चयी (पुरुषः ) कैवल्यम् संप्राप्तः इव कृतम् अकृतम न स्मरति ॥ ६ ॥

पूर्वोक्त साधनोंसे युक्त ज्ञानियोंकी दशाको निरूपण करते हैं कि-मैं देह नहीं हूं तथा मेरा देह नहीं है, किंतु