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भाषाटीकासहिता। 85

अन्वयः-पूर्वम् कायकृत्यासहः, ततः वाग्विस्तरासहः, अथ चिन्तासहः, तस्मात् अहम् एवम् एव आस्थितः ( अस्मि )॥१॥

पूर्व प्रकरणके विषं ज्ञानाष्टकसे वर्णन किये हुए विषयकोही शिष्य अपने विषं दिखाता है शिष्य कहता है कि हे गुरो ! प्रयम मैंने आपकी कृपासे कायिक क्रियाओंका त्याग किया, तदनंतर वाणीके जपरूप कर्मका त्याग किया इस कारणही मनके संक- ल्पविकल्परूप कर्मका त्याग किया इस प्रकार मैं सब प्रकारके व्यवहारोंका त्याग करके केवल चैतन्यस्वरूप आत्माका आश्रय करके स्थित हूं ॥१॥

प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्मनः ।

विक्षेपैकाग्रहदय एवमेवाहमास्थितः ॥२॥

अन्वयः-शब्दादेः प्रीत्यभावेन, आत्मनः च अदृश्यत्वेन विक्षेपै- काग्रहृदयः अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि ) ॥२॥

उपरोक्त तीन प्रकारके कायिक आदि व्यापारोंके त्यागनेमें कारण दिखाता है कि नाशवान् फलके उत्पन्न करनेवाले शब्दादि विषयोंके विषं प्रीति न होनेसे और आत्माके अदृश्य होनेसे मेरा हृदय तीनों प्रकारके विशे- पोंसे रहित और एकाग्र है, अर्थात् नाशवान् स्वर्गादि फल देनेवाले जप आदिके विषे प्रीति न होनेसे तो मेरे विर्षे जपरूप विक्षेप नहीं है और आत्मा अदृश्य है इस