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86 अष्टावक्रगीता।

कारण आत्मा ध्यानका विषय नहीं है, इस कारण चिंता- रूप मनका विक्षेपभी मेरे विर्षे नहीं है, इस कारण मैं आत्मस्वरूप करके स्थित हूं॥२॥

समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।

एवं विलोक्यनियममेवमेवाहमास्थितः॥३॥

अन्वयः-समाध्यासादिविक्षिप्तौ ( सत्याम् ) समाधये व्यवहारः (भवति ), एवम् नियमम् विलोक्य अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि )॥३॥

तहां शंका होती है कि, किसी प्रकारका विक्षेप न होनेपरभी समाधिके अर्थ तो व्यवहार करनाही पडेगा तिसका समाधान करते हैं कि, यदि कर्तृत्व भोक्तृत्वका अध्यासरूप विक्षेप होता अर्थात् मैं कर्त्ता हूं, मैं भोक्ता हूं इत्यादि मिथ्या अध्यासरूपविषेक्ष यदि होता तो उसकी निवृत्तिके अर्थ समाधिके निमित्त व्यवहार करना पडता है; यदि ऐसा अध्यास नहीं होता तो समाधिके निमित्त व्यवहार नहीं करना पडता है, इस प्रकारके नियमको देखकर शुद्ध आत्मज्ञानका आश्रय लेनेवाले मेरे विषे अध्यास न होनेके कारण समाधिशून्य में आत्मस्वरूपके विर्षे स्थित हूं ॥३॥

हेयोपादेयविरहादेवं हर्षविषादयोः।

अभावादद्यहेब्रह्मन्नेवमेवाहमास्थितः ॥ ४॥